कभी चलता था जमाना यहां वहां मेरी
अब कोई नहीं सुनता कुछ कहा मेरी
लोग बेरुखी से सर छुपाकर चलते बनते है
के फकत मौहुम सी हो गई दास्तां मेरी
यकी होता नहीं अब खुद पर भी मुझको
ना जिस्म मेरा है ना जां मेरी
अजाब इतना कि मर जाऊ मरता नहीं
गम को सुला देती है ये नशा मेरी
कलम तो टूट गई अब लिखते लिखते
काश न होती ऐसी बेबस जुबां मेरी
आने वालों की कतारें लगी ही रहती थी
भरे हुए हैं और भी करामातें दुनिया में
पर करती नहीं तारीफ किसी की बयां मेरी
भरे हुए हैं और भी करामातें दुनिया में
पर करती नहीं तारीफ किसी की बयां मेरी
क्यू पूछते हो क्यू बंद हुई दुकां मेरी
'आशीष ' किस बात की गुरूर है तुझको
ये जहां उसकी है वो जहां मेरी.
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